(यह कहानी सत्य घटना पर लिखी गयी है। सिर्फ इसके पात्र और जगह बदल दिए गए है। )
ये जिंदगी के आयाम भी बहोत अजीब है हुजुर,
कोई समझ न पाये।
कभी खजाना दिलाति है जिंदगी,
या हमेशा का दर्द और ख़ामोशी।
ये कहानी है नीलाक्षी की। एक छोटे से गाव में अपने माँ बाप के साथ ख़ुशी से रहती थी। श्रीपुर नाम का एक छोटा सा क़स्बा था। यहाँ लोग एक तो खेती न होने से रोते थे और गर्मी में पानी के लिए।
नीलाक्षी अपने माँ बाप की एकलौती संतान थी। पैसा नहीं था पर उसको बहोत प्यार से पाला था। नीलाक्षी को घर में सब नीला कहते थे। उसका ये नाम उसकी आँखों की वजह से पड़ा। उसकी आंखे आसमान की तरह नीली थी। लोग कहते थे की इसके लिए कोई राजकुमार ही ढूंडना होगा शादी के लिए। इतनी वो सुंदर थी। नीला के पिता का नाम अशोक था और माँ का नाम रत्ना। मजदूरी के काम के साथ वो गाव में मुर्गिया बेचा करता था। जो भी उसमे से मिलता,उसी में वो गुजर बसर करता। अशोक बहोत मेहनती था। पर उसके गाव में और कुछ करने लायक नहीं था इसी लिए वो शहर जाकर मुर्गियों की दुकान लगाना चाहता था। वो नीला को सारे सुख देना चाहता था जो उसको कभी नसीब नहीं हुए।
एक साल बहोत अकाल पड़ा। घर को चलाने के लिए अशोक के ऊपर कर्जा हो गया। उसको चुकाने के लिए उसको अपना घर बेचना पड़ा। अब उसके पास गाव में कुछ बचा नहीं था।
वो कहते हैं न, “मरता क्या न करता। ”उसके पास कोई चारा नहीं था,शहर जाने के सिवा।
कुछ मजदूरी का पैसा जोड़ रखा था अशोक ने नीला के लिए। उसी को दाव पे लगा के शहर की तरफ चल दिया अपनी बीवी और नीला के साथ।नीला उस समय कुछ आठ नौ साल की होगी। उसको पिता की हालत समझती थी। अपने पिता को बेबस और लाचार देख माँ से लिपट कर रोती। वहा पहुच कर अशोक ने एक छोटा सा कमरा किराए से लिया। साथ में दुकान लगाने के जुगाड़ के लिए वो दिन रात,जो मिले वो काम करता।
एक दिन काम से आते वक़्त मुर्गियों की एक दुकान दिखी। उसने अपने कदम उसी तरफ मोड़ लिए। वहा पहुच के काम के बारे में पुछा तो वहा काम भी मिल गया। अशोक यही तो चाहता था। पगार कम थी पर उसको वहा बहोत कुछ सिखने को मिलता। इसीलिए वो वहा काम पे लग गया।
अशोक ने उसकी बीवी और नीला से घर पहुच कर खुशखबर दी। उसकी बीवी रत्ना ने कहा, “आपको भी यही चाहिए था,सो मिल गया। कुछ रूपए जोड़ लेंगे उसके बाद अपनी खुद की दुकान लगायेंगे। ”
घर में ख़ुशी का माहोल था। कुछ दिन बीत जाने के बाद अशोक ने अपनी दुकान बना ली। उसका पुराना मालिक बहोत अछा इन्सान था। उसी ने उसको दुकान लगाने में मदत की। अशोक और उसके घर वाले काफी खुश थे। नीला भी अब शहर के स्कूल में दाखिला ले चुकी थी। नीला स्कूल खत्म होने के बाद अपने पिता को दुकान में मदत भी करती। वो बहोत से दुकान के काम अब खुद करती,जैसे मुर्गी का वजन करना,पैसे लेना,और उसको काटने में कभी मदत भी करती। अशोक को ये पसंद नहीं था की नीला ये सब काम करे। वो उसको घर जाने को कहता पर नीला अपने पिता को मदत करने से नहीं चुकती। अब तक तो सब कुछ अछा चल रहा था।
एक दिन अचानक अशोक को दुकान में चक्कर आ गया। बाजु वाले दौड़ के पहुचे और उसको अस्पताल में भर्ती कराया। नीला की माँ और नीला पता चलते ही दौड़ते हुए अस्पताल पहुचे।
डॉक्टर बोले, “इसको पैरालिसिस हो गया है। इसके हाथ और पैर काम नहीं कर रहे। अगर दवाई से ठीक हुआ तो अछा है वरना भगवान मालिक। ”
रत्ना पर तो मानो आसमान गिर गया था। उसको कुछ भी सूझ नहीं रहा था। बस रोए जा रही थी। साथ में नीला भी। अब हमारा क्या होगा सोच के उसके आसू थमने का नाम नही ले रहे थे। दवादारू का पैसा जैसे तैसे अदा कर अशोक को रत्ना घर लेके आती है। पर सोचती रहती है की अब घर चलेगा कैसे। दुकान को अब बंद करना होगा। यही सोच में सदा वो रहती।
एक दिन सुबह नीला उसकी माँ रत्ना के पास आती है और कहती है, “माँ,क्या मै अपने पुराने मालिक के यहाँ दुकान पे काम करने जाऊ?”
रत्ना चिढ़ती है, “अरे,लडकिया भला कहा मुर्गियों के दुकान में काम करती है। तुझे कौन काम देगा?”
तब नीला माँ को अपने काम के बारे में सब कुछ बताती है,की कैसे वो अपने पिता को दुकान में मदत करती थी।
माँ अनचाहे मन से नीला को अपने पुराने मालिक के यहाँ लेके जाती है।
मालिक को सब खबर होती है उनकी। घर के बाहर देखते ही वो खुद बाहर आता है और खैरियत पूछता है।
रत्ना कहती हैं ,“मालिक,ये रत्ना आपके यहाँ दुकान में काम करना चाहती है। आपका बड़ा उपकार होगा अगर आप इसको और मुझे भी कुछ काम दिला दो तो। ”
मालिक बोले “नीला बेटा, इधर आओ तो। मुझे तुम्हारे बारे में सब पाता है। तुम्हे काम की क्या जरुरत। तुम तो खुद अपनी पिताजी की दुकान चला सकती हो। यही मौका है बेटा,अपने घर को सँभालने का। ”
ये सुनते ही नीला को बड़ा अच्छा लगा। उसने तभी ठान लिया की अपनी दुकान वो खुद चलाएगी।
रत्ना, “मालिक,आपकी बात सही है। लेकिन,मुर्गी की दुकान कहा भला लडकिया चलाती है?लोग क्या सोचेंगे?”
मालिक रत्ना से, “सुन रत्ना,जब मुसीबत तेरे घर आयी थी,तो क्या लोग तेरी मुसीबत दूर करने आये थे क्या?अपना खुद को ही देखना पड़ता है। लोगो को उनका काम करने दो। लोग दो दिन बोलेंगे,बाद में चुप हो जायेंगे। मैं हु नीला के मदत के लिए। अशोक मेरे छोटे भाई जैसा था। क्या मैं तुम्हारे घर के लिए इतना भी नहीं कर सकता। ”
रत्ना रोने लगी। उसको नीला की चिन्ता होने लगी। आखिर एक लड़की मुर्गी कैसे काटेगी?
आखिर वो दिन आ गया। आज नीला को दुकान जाना था। अपने पिताजी की सायकल लेके वो खुद मालिक के दुकान पहुची। अपनी सायकल की दोनों तरफ मुर्गियों को लटकाया। और वो अपने दुकान की तरफ चल पड़ी। आते जाते सब लोग देख रहे थे। कोई हस रहा था। पर नीला को उससे कोई लेना देना नहीं था। उसको अपने घर की परेशानी,अपने पिता की तबियत दिख रही थी। वो दुकान पहुची। सब तयारी कर के वो लोगो का इंतेजार करने लगी।
लोग आते तो थे। पर लड़की मुर्गी कैसे काटेगी सोच के चले जाते थे। नीला को दूर से देख के कुछ लोग बाते कर रहे थे।
कुछ देर बाद मालिक वहा पहुच गए। “नीला बेटा,कैसे चल रहा है?”
नीला रोने लगी। मालिक समझ गए। लड़की होने के कारन लोग मुड नहीं रहे।
अचानक आदमी को दुकान में देख के अब लोग आने लगे। एक आर्डर आया।
मालिक ने नीला को इशारे में मुर्गी काटने को बोला। नीला ने झट से काम चालू किया। लोग ये देख के हक्काबक्का रह गए। इतनी छोटी और वो भी लड़की क्या सफाई से काम कर रही थी।यह बात आग जैसे फ़ैल गयी। लोगों की भीड़ उमड़ पड़ी दुकान में। कोई मुर्गी खरीदने आया और कोई सिर्फ नीला को देखने।
मालिक और नीला दोनों बहोत खुश थे। शाम होते होते सारी मुर्गिया बिक गयी। लोगों ने फिरसे बाते करना चालू किया जब नीला घर की तरफ जा रही थी। लेकिन इसबार कोई हँस नहीं रहा था। सब लोग नीला को शाबासी दे रहे थे। नीला ने अपने घर को सहारा दिया। एक लड़की होके लड़के से भी बड़ा काम किया था। नीला की माँ और पिताजी बहोत खुश थे। अशोक उसको देख खुद को रोने से रोक नहीं पा रहा था।
कुछ ही दिनो में अशोक को तिन पहिये वाली साइकिल से नीला दुकान लेके जाने लगी। ग्राहक दुकान में आने लग गए थे। अशोक ने आवाज लगायी….
“नीला…..भैया को एक किलो मुर्गी।
सुनते ही नीला अपने काम में जुट गयी थी।
