आज मैं अपने घर के बरामदे में जरा टहेल रहा था। दोपहर का वक़्त था तो सारा मोहल्ला शांत था। सब अपने काम पे गए थे। कुछ घर में थे शायद आराम फरमा रहे हो। धुप जरा तेज लग रही थी आज। अचानक सामने से सायकल की घंटी बजाते कोई आते हुए दिखा। वो डाकिया था। शायद कोई संदेशा साथ में लाया था। कौन जाने किसका?पर न जाने क्यों मैं खुद को रोक न पाया। दूर जाते तक उसको देखता रहा। अजीब सा सुकून मिल रहा था। ऐसे लग रहा था,मानो कोई मेरी चिट्ठी तो नहीं लाया था वो। जो देना भूल गया हो?
आज के ज़माने के एक मशहूर कवी की एक लिखी बात याद आती है। क्या खूब लिखा है…….
कागज नहीं वो,
हम दिल भेज रहे है।
फाड़ न देना तुम,
हमारी जान जाती हैं।
पर बिलकुल सही है दोस्तों। चिट्ठी कोई एक सादा सा कागज का टुकड़ा नहीं होता था। उसमे हम अपने आप को उतारते थे। क्या जमाना था वो। हैं ना?
जमाना बदलता गया और अपने साथ अपनेपन को भी लेके चला गया। जिस चिट्ठी का इंतजार करते दिन रात आंखे थकती नहीं थी। आज वो चिट्ठी हम से कही खो चुकी है।
लेकिन मुझे आज भी याद है वो दिन। जब कोई त्यौहार आता तो सब लोग घर में मामा,चाचा को चिट्ठी लिखने के लिए बैठ जाते थे। कितना अपनापण था। सब मिल के अपने हिस्से की चिट्ठी लिखते थे। सब के लिए एक जगह होती थी। पिताजी,फिर माँ,फिर हम सब बच्चे। फिर कभी दादी भी कहती की उस नालायक को बोलना की,“ इस बार छुट्टी में जल्दी आये। मेरे कान का इलाज करने जाना है। ”कभी तो हम बच्चे कोई न बोली बात भी चुपके से चिट्ठी में लिख देते थे। चुटकी के खिलौने मांगना,माँ की साड़ी,दीदी के गहने,झुमके,दादी की दवाई,हमारे नये जोड़ी जूते और भी बहोत कुछ। ये सब हमे उसी चिट्ठी से ही मिले थे।
और ऐसी चिट्ठी जब हम डाकखाने मे दे आते तो ऐसे लगता जैसे हम कोई पहाड़ तोड़ के आ गए। और मजे की बात ये होती जब ऐसी चिट्टी का जवाब आता। सारा घर उसी की ताक में रहता। हर सुबह स्कूल जाते तक और आने के बाद भी यही बात होती। “माँ सच बताओ ना,चाचा की चिट्ठी आयी क्या?”माँ कभी घुस्सा हो जाती और कहती, “तुम सब लोग उस डाकिये के घर जाके बैठ जाओ। पर मेरे पीछे मत लगो। मुझे बहोत काम है। ”हम बच्चे उस दिन के लिए तो चुप हो जाते। दुसरे दिन से फिर से वोही नाटक दोबारा चालू।
ऐसे दिन बितते जाते और वो चिट्ठी आ जाती जिसका सबको बेसब्री से इंतजार था। माँ भले ही मना करती पर उसको भी उसके मायके की बड़ी याद आती। वो भी नज़रे लगाये बैठी होती जब कोई मामा के घर का संदेसा लाता या फिर कोई चिट्ठी आती। उसकी आँखों में आंसू आते। पहले वो भगवान के पास जाती,उनको प्रणाम करती,तभी वो चिट्ठी को खोलती थी। खुद पढ़ने के बाद हम सब को पढ़ के सुनाती। मामा की चिट्ठी सुनने में बड़ा मजा आता।
चिट्ठी लिखे काफी दिन हो चुके थे। दिवाली का त्यौहार भी आने को था। दशहरे में हम ने खूब मस्ती की थी। रावण को जलाते वक़्त पठाखे की वजह से छोटू,जो मेरा छोटा भाई है,उसका हाथ जल गया था। हम सब ने उसे बोल दिया की इस दिवाली तुम पठाखे नहीं जलाओगे। इस बात से वो बहोत नाराज था। और मुह फुला के बैठा था। ये और ऐसी कितनी बाते लिखी जानी थी चिट्ठी में।
और दोपहर के बारा बज चुके थे। हम सब सुबह का स्कूल होने के बाद बरामदे में खेल रहे थे। छोटू अभी भी हम सब पे नाराज था। किसी के साथ नहीं खेल रहा था। फिर दूर गली के मोड़ से आवाज आयी।
“डाकिया!!!!!!”
हम सब नजर लगाये देख रहे थे। उसकी सायकल हमारे घर के आगे रुकी। अपने थैले में से बहोत से ख़त उसने हाथ में निकले। और कहा, “बच्चो,तुम्हारा तो कोई ख़त नहीं है। शायद तुम्हे कोई चिट्ठी नहीं भेजता। ”
हम बच्चे और माँ भी नाराज हो गयी। एकदम से डाकिया जोर से हँसा, “हा हा हा ….अरे मैं तो मजाक कर रहा था बच्चो। देखो तुम्हारे चाचा की चिट्ठी आयी है। वो बदमाश दिवाली को आने वाला है। ”
डाकिया हमारे काफी पहचान के थे। बहोत मजाक भी करते थे हम बच्चो की। चाचा भी उनके लड़के जैसे थे। उनकी भी मजाक करते थे। हम सब खुश हो गए। माँ ने चिट्ठी हाथ में ली,भगवान को प्रणाम किया और पढ़ने लगी। लिखा था की चाचा आ रहे है। सब के लिए ढेर सारे खिलौने और छोटू के लिए पठाखे। सुन के छोटू भी खुश हो गया। दादी भी। हम तो सब खुश थे ही।
पहले जब पोस्टकार्ड होता तो जो लिखा होता था वो कोई भी पढ़ लेता था। अगर किसी के हाथ कोई चिट्ठी लगती तो लिखा हुआ सब सारे मोहल्ले को पता चलता। ऐसे ही एक किस्सा था। हमारे बगल में एक पहलवान जैसे अंकल रहते थे। उनका लड़का शहर में नौकरी करता था। उसकी एक चिट्ठी आयी। वो पोस्ट कार्ड था। और वो लोग घर में नहीं थे तो वो चिट्टी बाजु के किराणे की दुकान में छोड़ा और उनको देनेका बोलके डाकिया चला गया। वो पहलवान अंकल दो दिन के बाद आये। सब दुकान में हस रहे थे। किसी ने उन्ही अंकल को पूछा, “भाईसाहब,आपको पाईल्स है,आपने बताया नहीं। ”और सब दुकान में बैठे लोग हँसने लगे। वो पहलवान अंकल इतना घुस्सा हो गए थे पर कुछ बोल नहीं पाये। सब ने उनके ऑपरेशन के बारे में पढ़ लिया था।
ऐसे कितने ही किस्से चिट्ठी के हुआ करते थे। कभी ख़ुशी तो कभी ग़म का संदेसा लाती थी ये चिट्ठी। ऐसी ही एक चिट्ठी आयी थी। मुझे आज भी याद है। कोई पिताजी का दोस्त लेके आया था उस रात को। सब खाना खा रहे थे। अचानक दरवाजे पे दस्तक पड़ी।
“कौन?”अन्दर से पिताजी बोले।
“मैं रवि”
रवि अंकल पिताजी के साथ काम करते थे। उनके ऑफिस में थे। पिताजी ने दरवाजा खोला। और अन्दर आने को कहा। वो सोफे पे बैठ गए। उनके हाथ में एक चिट्ठी थी। उन्होंने पहले वो पिताजी को दी। पिताजी एकदम से चुप हो गए। वो माँ की तरफ देखने लगे। माँ डर सी गयी। पिताजी ने कहा, “हमे अभी मामा के गाव जाना होगा। तुम्हारे मामा अब नहीं रहे। ”माँ बहोत रोने लगी और वैसे रोते हुए,बिना खाए ही हम सब मामा के गाव चले गए थे। इस बात को काफी साल बित गए।
दीदी की शादी हो गयी थी अब। वो भी कभी चिट्ठिया भेजा करती थी। हम भाइयो के लिए कुछ न कुछ वो हर बार लाती। ऐसे करते करते सब कब बड़े हुए पता ही नहीं चला।
चिट्ठी कब आना बंद हो गयी ये भी शायद किसी को याद नहीं होगा। अचानक से सब थम सा गया। वो प्यार की लिखावट,वो तकरार,वो नाराजी,इनकार,इकरार और लम्बा इंतजार कही खो सा गया।
अब कोई चिट्ठी नहीं आती हैं। अब सब के हाथ में मोबाइल आ गए। सब लोग करीब तो आ गए। लेकिन जब मोबाइल पे कोई संदेस आता है तो इतनी ख़ुशी नहीं होती,जीतनी एक चिट्ठी के आने से होती थी। भले वो कई महीनो में एक बार आती थी।
लेकिन सब से अछी बात ये है की,
हमने वो जमाना जिया था।
कभी चिट्ठी का भी इंतजार किया था।
अब बस यादे आती है उससे जुडी सी,
जब मिलती है कोई चिट्ठी मुड़ी सी।
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