सुनहरी धुप | Interesting Childhood Stories To Cherish Lifetime

sunahari dhoop

बाहर बहोत ठण्ड है। सुनहरी धुप भी निकली है| लेकिन गर्म बिस्तर से उठ कर बाहर जाने का बिलकुल भी मन नहीं करता। ठंडी से मेरे होंठ भी फटने लगे हैं। दिवाली तक ठण्ड तो ज्यादा नहीं थी। अब काफी बढ़ गयी है। लेकिन इतनी ठण्ड में भी मेरी माँ सुबह उठ के गाय का दूध निकाल के बाकि बछड़े को पिने के लिए छोड़ देती है। सारा आंगन साफ कर के उसको गोबर से पोत देती है। उसके हाथो को शायद ठण्ड नहीं लगाती। कभी ये सब करते वो गीली भी हो जाती है। पर अपना काम नहीं रोकती। मैं कभी पूछता हु की, “माँ, तुम्हे ठण्ड नहीं लगती ?” वो बस हस के चली जाती है।  

हमारे आंगन में बड़ा सा निम् का पेड़ था। वहा सब लोग सुबह धुप के लिए और शाम को खाना खाके बाते करने के लिए जमा होते थे। मैं अपने बिस्तर से उठ के वहा पेड़ के पास धुप में बैठने को पहुच गया। वहा हमारी गाव की सबसे बूढी औरत “बैजू अम्मा” भी आती थी। वो बहोत अच्छी कहानी सुनाती थी। हमारा गाव जब बहोत छोटा था तब वो यहाँ शादी कर के आयी थी। उसकी किस्सों में मैं कभी खुद को रख कर वो पुराने दिन महसूस करने लगता हु। मैं ऐसा क्यों करता हु ये मुझे अभी तक समझ नहीं आया है।

सुबह हम सब नहाने नदी पे जाया करते थे। पिताजी मुझे और मेरे भाई को साइकिल पे बिठा के दूर नदी तक लेके जाते थे। मैं कभी चलती साइकिल के आगे वाले पहिये पे पैर रख कर कसरत करने के कोशिश करता। ये बात सिर्फ मैं,मेरा छोटा भाई और पिताजी जानते थे। माँ तक ये बात कभी पहुच नहीं पायी। हमने आते वक़्त एक छोटे तालाब से मछली पकडी थी ये बात भी हमने काफी दिनों तक माँ को नहीं बताई।

हमारे घर में “चम्पी” नाम की एक कुतिया थी। उसका सारा कुछ मेरी माँ ही करती थी। वो भी सुबह धुप सेंकने निम् के पेड़ के पास बैठी रहती थी। उसका रंग भी सुनहरा था। बिलकुल धुप की तरह। वो काफी समजदार थी। मेरी माँ जहा भी जाती,वो साथ में जाती। उसके आखरी दिनों में मेरी माँ ने उसकी बहोत सेवा की। चम्पी की आंखे जरा भूरे रंग की थी। जब वो बूढी हुई तो उसकी आंखे सफ़ेद हो गयी थी। कुछ दिनों बाद वो मर गयी। उसके जाने पर मेरी माँ बहोत रोई थी। उसको जिस जगह पे दफनाया वहा पे मेरी माँ ने चावल की खीर रखी। उसको बहोत पसंद थी। उस दिन से मुझे लगा की जिसकी आंखे सफ़ेद हो जाती है वो मरने वाला होता है।

हमारे निम् के पेड़ के पास कुछ बूढ़े भी आते थे। गणपति दादू भी आते थे। वो हमारे पड़ोस में रहते थे। उनके लड़के शहर में रहते थे। मैंने एक बार उनको करीब से देखा। उनकी एक आंख सफ़ेद हो चुकी थी। मैंने उनसे पुछा, “दादू, क्या आप मरने वाले हो ?” दादू को बड़ा घुस्सा आया। उन्होंने मेरी माँ को बुलाया और मेरे बारे शिकायत की। मेरी माँ ने मेरी खूब पिटाई की थी। वो दरहसल मोतियाबिंद था। जिसका ऑपरेशन होना बाकि था। ये मुझे मार खाने के बाद पता चला।

जैसे चम्पी की मौत हुई अचानक वैसे ही धुप सेंकने आने वाले बहोत से लोग ऐसे ही अचानक गायब हुए। हमारी बैजू अम्मा की तरह। वो भी अचानक दिखना बंद हो गयी। हमारी किस्सों और कहानियो का खजाना उसी के साथ खो गया। तब भी धुप ही थी जब मैं और पिताजी नदी के पानी में मछलिया पकड़ा करते थे। वो भी हमारे साथ बच्चे बन जाते थे। माँ हमेशा कहती की, “घर में कुछ कम है जो तुम सब बाहर से मछलिया पकड़ के ले आते हो। ”लेकिन हम कभी नहीं सुनते थे।

गर्मी के दिनों में माँ सारे काम करके लेटी हुई थी तब मैंने उनको एक सवाल पूछा था? “माँ…..मुझे जब भी लड्डू खाना होता है तो तुम हवा में हाथ घुमा के लड्डू कहा से लाती हो?कोई जादू करती हो क्या?”तब माँ ने घुस्से से कहा, “अरे,ये सब फालतू बाते अभी करना जरुरी है?सो जा थोड़ी देर। ”मैं छोटा था तब तक यही समजता था की मेरी माँ को कोई जादू आता हैं। मुझे साइकिल से गिरने से चोट लगी थी तो मेरी पैर की उंगली में चोंट की वजह से सुजन थी। सब बोल रहे थे की अब उंगली काटनी पड़ेगी। तब मेरी माँ ने उसको हल्दी लगा के ठीक किया था। उंगली काटने के डर से उस रात मैं सो नहीं पाया था।  

जब धुप होती थी तो हमारी घर की छत से एक कोने से सुनहरी धुप की किरण रसोईघर के अन्दर आती। वो किसी राक्षस की आंख की तरह दिखती थी। मेरी माँ उसको दिखा कर मेरे छोटे भाई को चुप कराती। वो काफी जिद्दी था। आज भी है। लेकिन एक दिन वहा से एक सांप घर के अन्दर आया। उस दिन से वो कोना भी पिताजी ने बंद कर दिया। उस दिन भी धुप थी जब हम सब जवार के खेत में खेल रहे थे और जवार के पत्ते से “शिवा” की आंख कट गयी थी। बहोत खून निकला था।

एक बार की बात है। जब मैं पांचवी कक्षा में था। गाव में एक लाइब्रेरी खुल गयी थी। जो मंदिर के ऊपर वाले कमरे में थी। मंदिर का पुजारी बड़ा ही खडूस था। कभी ठीक से बात नहीं करता था। बच्चो से वो काफी चिढ़ता। हर इतवार के दिन लाइब्रेरी बंद रहती थी। मुझे बचपन से ही किताबे पढ़ने का शौक था। मेरी माँ जब भी शहर जाती हम दोनों भाइयों के लिए किताबे लाती थी। लाइब्रेरी छोटी होने के कारन किताबे भी कम थी। जब भी जाओ तो पढ़ने नहीं मिलता था। आज इतवार था सो मैंने सोचा, चुपके से अन्दर जाऊंगा और मन भर के किताबे पढ़ लूँगा। मैं चुपके से मंदिर की सीडी से अन्दर गया। पुजारी सो रहा था। ऊपर जाके मैं पढ़ने लगा। दोपहर हो गयी थी। अचानक एक बिल्ली खिड़की से अन्दर आयी। वो मुझे देख चिल्लाने लगी और पुजारी जाग गया। वो ऊपर आया तो उसने मुझे देख लिया। पुजारी ने मेरा कान पकड़ा और निचे लेके आया। और जोर से चिल्लाने लगा।  “देखो भाई देखो। शैतानो ने पूरी लाइब्रेरी में कचरा किया है। किताबे फाड़ी है। इसका जुरमाना कोण भरेगा ?”

किताबे शायद बिल्ली ने ही फाड़ी होगी पर अब तो मैं मिल गया था। घर जाकर मेरी खूब पिटाई हुई। पिताजी ने कहा, “अगर तू ऐसे ही शैतानी करेगा तो तेरा घर धुप में बनवा देंगे। फिर रहना अकेले वहां। ”

ऐसे कितने सारे बचपन के किस्से थे जो सब धुप की तरह शाम ढलते हुए,कही खो गए।

हम सब बड़े हुए। बचपन भी कही खो गया। पिताजी ने मुझे धुप में बांधा तो नहीं लेकिन सुनहरी धुप ने मेरे दिल में हमेशा के लिए घर बना लिया।   

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे