जीवन में हम कितना भी कुछ कर ले कुछ न कुछ बाकि जरुर रह जाता है। और उस बात को लेकर हम फ़िक्र करते है और असल में जो हाथ में सुंदर जिंदगी हैं उसको जीना कही भूल जातें हैं।
लेकिन कभी कोई भिकारी या फ़क़ीर का जीना महसूस किया हो तो …..हमे अपने जीवन की सभी परेशानिया उसके सामने कुछ भी नहीं लगेगी। ऐसे ही होता है फ़क़ीर का जीना। किसी का लोभ नहीं और न कोई आस…..
मस्त मलंग है मेरा जीना,
नहीं कोई ठिकाना रे,
आज यहाँ तो कल वहां,
होता अपना बसेरा रे।
कभी मंदिर की चौखट,
तो कभी मस्जिद का कोना रे।
जात पात मैं कभी ना मानू,
भूक मिटाता हर वो निवाला रे।
चिंता-भय नहीं मुझे,
ये होत जिसे धन की आस रे।
मैं फ़क़ीर बैरागी जीवन का,
मैं तो बस प्यार का भूखा रे।
मान मिले कभी अपमान सही,
करता सब का स्वीकार रे,
झोली मेरी सदा रहे खाली,
मन भर के लेकिन जीता रे।
मैं फ़क़ीर कहलाता रे…….