काफिला | An endless Journey

kafila

अपने सिर के ऊपर छत हो और सुकून की नींद हो यही चाहता है ये आम इन्सान। लेकिन जब खुले आसमान के निचे सोना पड़े और बारिश आये,कभी तूफान तो कोई सहारे के लिए कोना तलाशना पड़े ऐसे जीवन को जो जीता है वोही घर की एहमियत जान सकता हैं।

बारिशों का मौसम अब खत्म होने को था। थोड़ी ठण्ड चालू होने के पहले जैसा होता हैं न,हलकी ठण्ड और थोड़ी गर्मी, वैसा कुछ मौसम चल रहा था। घर में जाड़ो के लिए तयारी चालू हो गयी थी। ठंडी के कपडे धोना और कड़ी धुप में उनको सुखाना। गरम कपड़ों में सोने का मजा ही कुछ और होता है जब ठंडी जोरो की हो। मैं ऑफिस के काम कर के घर वापस लौट रहा था तो सामने के खुले मैं मैंने कुछ लोगों को छोटे कपडे के तम्बू लगाये देखा था। रात थी सो मैंने सोचा कल देखते हैं क्या माजरा है|

सुबह उठ के जब मैं अपने खिड़की के पास गया तो सामने देखा की कुछ काफिले वाले आये थे। उनका सारा सामान जानवरों पे लद के लाए थे। कुछ भेड़बकरिया और ऊंट थे उनके पास। मैं थोडा फ्रेश होकर उधर घुमते हुए चला गया। वहां पहुँचने पर देखा के कुछ छोटी तो कोई बड़ी झोपड़ी है वहां। आधे नंगे छोटे बच्चे खेल रहे थे। मुझे देख के सब भाग गए। और अन्दर झोपड़ी में से झांक के देखने लगे। मुझे देख के एक बूढी औरत बाहर आयी और बोली, “माफ़ करना साहेब, ये आपकी जगह हैं क्या? हमने बिना पूछे ही यहाँ अपना आसरा बना लिया। कल रात हुई थी तो और कोई जगह नहीं मिली साहेब|”

वो बूढी औरत काफी उम्र की होगी। लेकिन मुझे साहेब कहके बुला रही थी। मैं उसके बच्चे की उम्र का था लेकिन उसने ये नहीं देखा। उसकी चेहरे की झुरियों से पता चल रहा था की कम से कम ७०-८० साल की होगी। कपडे फटे हुए थे। कही पे सिलाई कर के फटा हुआ सिला लिया था। हाथ में एक लकड़ी थी उसी का आसरा लेके वो कैसे तो खड़ी थी। बाल धुल मिटटी से गंदे हुए थे उसके।

मैंने कहा, “अरे ,नहीं अम्मा। मैं इस जगह का मालिक नहीं। वो कोई और हैं। लेकिन तुम लोग यहाँ रुक सकते हो। मैं तो यहाँ घुमने आया था।”

मेरे ऐसे कहने पे वो जरा खुश हो गयी। लेकिन उसने अपनी ख़ुशी दिखाए बिना ही कह दिया, “अच्छा ठीक हैं।”

मेरे वापस मुड़ते ही बच्चे भी बाहर आकर खेलने लगे। मैंने पैरों में जुता पहना था। लेकिन जो बच्चे वहां खेल रहे थे उनके किसी के पैर में चप्पल भी नहीं था। वो एक पुराना सा पिचका हुआ प्लास्टिक का बॉल खेल रहे थे। आज के ज़माने में हमारे बच्चे मोबाइल और टीवी में अपना खाली वक़्त बिताते हैं और ये बच्चे अपने ही दुनिया में मस्त थे। उनको देख के लगता नहीं था की कोई स्कूल जाता होगा। मैंने सोचा कैसे जीते हैं ये लोग? यही सोच में घर आया और बादमे ऑफिस चला गया। लेकिन उनको देख के मैं इतना क्यू सोचने लगा ये समझ नहीं आया। रात को आते वक़्त मैं कुछ केले और चोकलेट्स लेता आया बच्चो को देने के लिए । लेकिन देखा तो सब सो गए थे जल्दी।

मैं अपनी खिड़की से उनके काफिले को देख रहा था। बिलकुल शांत था। जरा हवा आती तो कभी भेड़ों की आवाज आती। इतने शांति से हम पैसे वाले लोग कब सोते थे,या कब सोये थे मुझे याद नहीं। मैं जब छोटा था तब शायद रात के आठ बजे सोता था। लेकिन यहाँ तो सब सो चुके थे। मुझे खुद पे तरस आया की हम कितने बदल गए हैं। और उनको इतना आराम से सोते हुए देख के उन काफिले वाले लोगो से मुझे जरा जलन होने लगी थी। क्या करे की जब सब है लेकिन शांति नहीं, पैसा है लेकिन सुकून नहीं। काम इतना होता है की अपनो के लिए वक़्त नहीं।

यही सोच में आँख कब लग गयी पता नहीं चला। सुबह मुझे वहा जाना था। उठा तो सूरज ऊपर आ गया था। जल्दी फ्रेश होकर मुझे केले और चोकलेट्स लेके उन झोपड़ो में जाना था। आज मुझे बच्चो ने अनदेखा किया। मैं उसी झोपडी के पास गया। मैंने आवाज लगायी, “अम्मा…..”

परदा हटाके वो बुढिया आयी। सभी झोपड़ियाँ ऐसे ही खुली छोड़ के सब काम पे चले गए थे। जो था कीमती शायद उनका जिन्दा रहना था। बाकि उनके लिए कोई भी चीज कीमती नहीं थी। मैंने उनको साथ में लाया सामान दिया और कहा की बच्चो में बाँट दो। बच्चे ये सुन के वहां जमा हो गए। सब ने मजे से चोकलेट्स खाए। और किसीने अपने जेब में केले रख लिए। मैंने अचम्बे से पूछ ही लिया। “क्यू, क्या हुआ? खाओ ना।”

तभी एक बच्चे ने कहा, “नहीं साहब, मैं रात को खाऊंगा।”

मैंने अम्मा से पुछा के ये ऐसे क्यू बोल रहा हैं। तब अम्मा से जो बात पता चली वो सुन के मेरा मन एकदम से दुखी हो गया। कुछ लोगो को कभी एक वक़्त का खाना नहीं मिलता तो सुबह थोडा खाके रात के लिए कुछ बचा के रख लेते है सब। अन्दर जाते हुए अम्मा ने मुझे आवाज लगायी, “साहेब,चाय पिओगे?”

मैंने बगल में झांक के देखा तो चुल्हे पे बाहर से पूरा काला एक मिटटी का बर्तन रखा था। सभी बच्चो को बुढिया ने वही से चाय दी। मैंने जरा देखने की कोशिश की। बर्तन में काला सा पानी उबल रहा था। सब ने मजे से वोही पानी, बिना छाने ही पी लिया। मैं शायद वो पी न पाता। और उसको ये अछा नहीं लगता। इसलिए मैंने झट से मना कर दिया। थोडा रुक कर मैंने पुछा, “अम्मा,ये सब तुम्हारे कौन हैं? बाकि कोई दिख नहीं रहा। तुम कल भी अकेली थी और आज भी|” अम्मा ने बताया की ये बच्चे उसके कोई नहीं लगते। सुबह उठ के सभी काम पे चले जाते हैं। वो कुछ कर नहीं सकती तो यहाँ बच्चो के साथ रुक जाती हैं। उसका बचपन से लेके बुढ़ापा ऐसे ही घुमते फिरते ही बित गया हैं। उन सब का काम कारीगरी का था। वो हाथ से बनाये जेवर बेचते हैं ऐसे उस बुढियां ने बताया|

मुझे अब काफी देर हो चुकी थी। मैं वापस घर की ओर चल दिया। मन बहोत भारी लग रहा था। काम पे जाने का मन नहीं था। लेकिन उन काफिले वालों का जीवन याद आया। भूखे रहकर भी अपना काम वो रोज करते है इस आस में की कभी तो ये सब बदल जाये। मेरी साँस भारी हो गयी थी। मुझसे आज खाना खाया नहीं जाता इसलिए ऐसे ही चला गया मैं। दिन भर उनके बारे सोच रहा था। जिंदगी भी कितनी बेदर्द हैं। किसिको खाने पिने की कोई कमी नहीं,सोने के लिए बिस्तर,रहने के लिए घर। और किसी को फटे कपडे,खुले आसमान के निचे सोते हैं,धुप और  बारिश में रहते है। और भर पेट खाने का सपना मन में लेके रोज वो सोते हैं। आज लोग बगल में रहने वाले को पूछते नहीं और वो बेचारी बुढिया कोई रिश्ता नहीं फिर भी सारे बच्चो को अकेले संभालती हैं। आज लग रहा था की हम सच में जी रहे हैं या उनका जीना सही हैं?

आज भी मुझे देर हुई घर आने को। घर आकर जैसे तैसे खाना खाया। और अपनी खिड़की से उन झोपड़ो को निहारने लगा। टिमटिमाती एक लौ दिख रही थी। शायद कोई दिया था जो जल रहा था। मैं उन सब बच्चो को कल खाने पे बुलाऊंगा सोच के सो गया। कल मेरी छुट्टी थी।

सुबह उठा और खिड़की से देखा तो मुझे वहां कोई भी झोपड़ी दिखी नहीं। मैं जल्दी से कपडे पहन के उधर भागा। देखा तो सच में वहा कोई नहीं था। सब लोग चले गए थे। वो अम्मा, वो बच्चे और काफिला। पीछे कुछ भी नहीं बचा था। एक आधी सी जली लकड़ी थी उस चूल्हे में अम्मा के। उसका हल्का सा धुआ उठ रहा था। वो ऊपर तक पेड़ों में पहुच रहा था। जैसे ही हवा आयी कुछ पत्ते टूट के हवा के साथ उड़ने लगे। और साथ में धुल भी। शायद उन काफिले वालों का मुझे रास्ता दिखा रहे थे। वो लोग कहा गए अचानक किसी को पता नहीं। ये पेड़ कुछ दिन उनका सहारा बने थे। इनको शायद पता होगा उनका ठिकाना। मैंने उन पेड़ों की तरफ एक नजर देखा। वो भी मुझे एक अजनबी की तरह देख रहे थे। एकदम शांत। जैसे आज वो चूल्हा था। कैसे भूक मिटाता था ये उसीको पता था। मैंने उसको भी देखा। वहा रोटी का एक सुखा हुआ टुकड़ा रखा था।

मैं टुटा हुआ उन पत्तों की तरह घर की तरफ बढ़ता गया। एक दिन ख़ुशी का उनको देना चाहता था।

शायद वो ख़ुशी उनके नसीब में नहीं थी। या शायद मेरे।

अपनी खिड़की से आज मुझे खुला मैदान दिख रहा था। हलकी धुए की लकीर जो ऊपर जा रही थी वो भी अब दिखना बंद हो गयी थी। उसकी दबती हुई गंध मेरे सीने में कही गुम हो गयी थी।

अपने दोस्तों के साथ शेयर करे