कहते है की जहां सवेरा हो वही बसेरा होता है। पर कई बार हम चाहकर भी एक जगह रुक नहीं सकते। जब मंजिल पोहचना हो तो जुदाई सहनी पड़ती है। उसी जानेवाले के दिल में उठाने वाले सवालो को, भावनाओ को ये “मैं चलता हूँ” कविता बयां करती है।
कुछ ख़्वाब थे अधूरे,
करने थे वो पुरे,
उनके ख़ातिर…
कही है रुसवाई,
कही यादों का मंजर,
उनमे जीने…
याद आएगा वो गुजरा जमाना,
छोटी सी बातों के लिए लड़ जाना,
उन्ही के लिए …
मैं चलता हूँ
उन्हीं यादों पे बसर करने,
वादा कोई पूरा करने।